हिन्दुओं में असभ्य कुप्रथाओं की ओर आकृष्ट करना चाहता हूं। जो की प्रचलित कतिपय निष्ठुर प्रथाएँ इस जाति को सभ्य होने पर सन्देह उत्पन्न कर देती हैं।
कई प्रथाओं को ब्रिटिश सरकार ने
कानून द्वारा बन्दकर इस जाति या समाज पर महोपकारकिया है।
(1) रथ यात्रा – जगन्नाथ धाम में रथ यात्रा के समय कितने भक्तजन रथ के पहियों के नीचे मोक्ष प्राप्ति की आशा में जान-बूझ- कर दबकर मर जाते थे। मानव सभ्यता को कलंकित करने वाला यह
नृशंस कार्य हर तीसरे वर्ष होता था। ब्रिटिश सरकार ने इस प्रथा को कानून के द्वारा बन्द किया ।
(2) काशी- करवट : काशी धाम में आदि विश्वेश्वर मन्दिर के पास एक कुआ है, जिसमें मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से कुदकर भक्तजन अपनी जान दे दिया करते थे । इस प्रथा को ब्रिटिश सरकार ने दूर किया ।
(3) गंगा-प्रवाह: अधिक अवस्था (उम्र) बीत जाने पर भी यदि कोई सन्तान न हुई, तो कितने माता-पिता यह मनौती करते थे कि यदि हमें सन्तान हुई, तो हम अपने पहले बच्चे को गंगा- सागर को भेंट चढ़ावेंगे। यानी गंगा सागर में प्रवाह कर देंगे। इस निष्ठुर मनौती को पूरी करने के लिए वे अपनी
पहली सन्तान को गंगा सागर में छोड़ देते थे। इस क्रूर प्रथा को ब्रिटिश सरकार ने ई० स० 1835 में कानून के द्वारा बन्द कर दिया।
(4) चरक पूजा । काली के मोक्षाभिलाषी उपासक के मेरु-दंड में दो लोहे के हुक धँसाकर उसे रस्सी के द्वारा चर्खी के एक छोर से लटका देते थे। और के दूसरे छोर में बँधी हुई दूसरी रस्सी को पकड़कर उस चर्खी को खूब ज़ोर से तब तक नचाते थे,जब तक उस उपासक के प्राण पखेरू उड़ न जाएँ। इस प्रथा को
ब्रिटिश सरकार ने ई० स० 1863 में कानून के द्वारा बन्द किया ।
(5) सतीदाह : विधवा स्त्री को उसके मृत पति के शव के साथ उसी की चिता में बलपूर्वक जला दिया जाता था। आदमी के मौत के उपरान्त अपने बंधु बांधवों को बुलाया जाता था। ढोल आदि सभी वस्तुओं का प्रबंध किया जाता था । जो की जलाने में सहयोगी था। इस अमानुषिक प्रथा का अन्त ब्रिटिश सरकार ने ई० स० 1841 में किया। यह प्रथा भारत में सर्वत्र प्रचलित थी।
(6) कन्या वध : उड़ीसा और राजपूताना में कुलीन क्षत्रिय के घर कन्या के जन्म होने पर तत्काल ही उसकी नटी टीपकर उसे इस भय से मार डालते थे कि उसको जिन्दा रखने पर उनको किसी न किसी
का ससुर और साला बनना पड़ेगा । इस जघन्य प्रथा को ब्रिटिश सरकार ने ई० स० 1870 में कानून से बन्द किया
(7) नर-मेध : यह पैशाचिक प्रथा ऋग्वेदीय शुनःशेन की कथा में वर्णन है। यह प्रथा उत्तर और दक्षिण भारत में प्रचलित थी । इसमें किसी अनाथ या निर्धन मनुष्य को दीक्षित करके यज्ञ में उसकी बलि चढ़ाई जाती थी।
इस निष्ठुर प्रथा को ब्रिटिश सरकार ने ई० स० 1845 में एक्ट २१ (कानून ला कर) बनाकर दूर किया।
(8) महाप्रस्थान : इसका आधार मनुस्मृति ६।३१ माना जाता
था । मोक्ष के अभिलाषी भक्तगण नियम पूर्वक सरोवर यानी (तलाब) में या अग्नी मे कूद कर प्राण त्याग देते थे। यह एक प्रकार का आत्मघात है । इस व्रत को करने वाले मोदलामार्थ जल में डूबकर अथवा आग
में जलकर अपनी जान दे देते थे। मृच्छकटिक नाटक में लिखा है कि राजा शूद्रक ने भी महाप्रस्थान किया था। और रामचन्द्र जी ने भी सरयु नदी में डूब कर प्राण त्याग दिया था। इस प्रथा को भी मिटाने वाली ब्रिटिश सरकार ही है।
(9) तुपानल: कोई कोई अपने किसी पाप के प्रायश्चित्त-स्वरूप अपने को भूसा या घास की आग में जलाकर भस्म कर देते थे।
कुमारिल भट्ट ने बौद्धों से विद्या ग्रहणकर फिर उन्हीं के धर्म को खंडन करने के पाप से मुक्त होने के लिए इस व्रत को किया था ।
ब्रिटिश सरकार ने ही कानून बनाकर इस राक्षसी प्रथा का अन्त किया।
(10) हरिबोल: यह प्रथा बंगाल में प्रचलित थी; असाध्य
किम्बा वृद्ध मरणासन्न रोगी को गंगा में ले जाकर उसे गोते दे देकर स्नान कराते तथा उसे कहते थे कि ‘हरि बोल बोल हरि’ यदि वह इस प्रकार गोते खाते-खाते मर गया, तो वह बड़ा भाग्यवान् समझा जाता था और यदि नहीं मरा, तो वहीं पर अकेले तड़प-तड़पकर मर जाने के लिए छोड़ दिया जाता था। उसे घर वापस नहीं लाया जाता था। इस जघन्य प्रथा को ब्रिटिश सरकार ने ई०
स० 1831 में कानून द्वारा बन्द किया ।
(11) भृगुउत्पन्न: यह प्रथा गिरनार और सतपुड़ा पहाड़ों की
घाटियों में प्रचलित थी। वहाँ के नवयुवक अपनी माताओं के द्वारा मनौती को पूरी करने के लिये पहाड की चोटी से कुद कर प्राण त्याग देते थे। मनौती ये थी की यदि सन्तान हुई तो
अपनी पहली सन्तान से भृगूत्पन्न करावेंगी,
पहाड़ की चोटी से गिरकर अपने प्राण दे डालते थे। इस प्रथा को भी ब्रिटिश सरकार ने ही बन्द किया।
(12) धरना : याचक लोग विष या शस्त्र हाथ में लेकर गृहस्थों के द्वार पर बैठ जाते थे ; और उनसे यह कहते थे कि हमारी अमुक कामना को पूरी करो; नहीं तो हम जान दे देंगे। विचारे गृहस्थों को उनकी अनुचित इच्छाएँ भी पूरी करनी पड़ती थीं। इस प्रथा के तहत मोरध्वज को याचक की इच्छाएं पुरी करनी पड़ी थी। इस प्रथा को
ब्रिटिश सरकार ने ई० स० 1820 में कानून से बन्द किया।
हमारे कितने धर्माचार्य यह कहा करते हैं कि भाई, जब से
हमने अपने धर्म-पालन में शिथिलता दिखलाई तभी से हमारी
यह अधोगति हो गई है। क्या मैं धर्म के इन ठेकेदारों से पुछ सकता हूं। इतने बड़े पाखण्ड इस समझ पर लाद कर समाज की कौन सी भलाई किया है। उन अंग्रेजो का शुक्रगुजार होना चाहिए की समाज के इतने बड़े कलंक को हटा दिया।
और कुछ ऐसे भी हैं की आज भी डिंग हाक रहे हैं की वो बड़े धर्मात्मा है। और भी अभी बहुत प्रथाएं है जिसका वर्णन अगले भाग में करेंगे।